Thursday, August 27, 2009

कल्पना

मेरी ये कविता लड़कपन और जवानी के बीच की कल्पना है... जो अक्सर ख्वाबो को सच मान कर जिंदगी का आनंद एक पंछी की भाती जीने लगता है ।
कल्पना

नींद पलकों में उलझ कर खो गयी...
चांदनी मेरे पास आ कर सो गयी ।
दूर से आती हुई ठंढी हवा ...
कल्पना के बीज मन में बो गयी ।
आग भड़काने लगी तन्हाएया ...
धडकनों में रौशनी सी हो गयी ।
सुबह ने किस्सा सुनाया रात का ...
किस कदर मायूस हो कर वो गयी ।
सवेरे का सूरज छलावा था केवल ...
पलक झपकते ही शाम हो गयी ।
धडकनों पर हस्ताक्षर थे तुम्हारे ...
ये उम्र भी तुम्हारे नाम हो गयी ।

Monday, August 24, 2009

पथ

कभी कभी आदमी ये सोचने पर मजबूर हो जाता है की ... जितने भी लोग साथ जुड़े उन सबके साथ उसका लगाव कैसा था । क्या वह उन लोगो को उतना प्यार दे पाया जिसके वो हकदार थे । अगर वह ऐसा नहीं कर पाया तो इसका कारण क्या था । फ़िर वह सोचता है प्यार देना या प्यार पाना किस्मत में होता है ... किसी के मांगने या ख़ुद के चाहने से कुछ नहीं होता है । प्यार एक पथ है जो पथिक को अपनी तरफ़ एक चुम्बक की तरह खीचने लगता है ... और आदमी बिना सोचे समझे एक अंधे की भाती चलते जाता है ।

पथ
जितने प्रेमी उतने आंसू
हर आंसू की व्यथा अलग है
जितने आंसू उतने अक्षर
हर अक्षर की भाषा अलग है
जितने अक्षर उतने प्रतिक
यह न पुछो आराद्य किधर है
पथ अपने ही मुड जाएगा
सच्चा आराद्य जिधर है ।