Monday, August 24, 2009

पथ

कभी कभी आदमी ये सोचने पर मजबूर हो जाता है की ... जितने भी लोग साथ जुड़े उन सबके साथ उसका लगाव कैसा था । क्या वह उन लोगो को उतना प्यार दे पाया जिसके वो हकदार थे । अगर वह ऐसा नहीं कर पाया तो इसका कारण क्या था । फ़िर वह सोचता है प्यार देना या प्यार पाना किस्मत में होता है ... किसी के मांगने या ख़ुद के चाहने से कुछ नहीं होता है । प्यार एक पथ है जो पथिक को अपनी तरफ़ एक चुम्बक की तरह खीचने लगता है ... और आदमी बिना सोचे समझे एक अंधे की भाती चलते जाता है ।

पथ
जितने प्रेमी उतने आंसू
हर आंसू की व्यथा अलग है
जितने आंसू उतने अक्षर
हर अक्षर की भाषा अलग है
जितने अक्षर उतने प्रतिक
यह न पुछो आराद्य किधर है
पथ अपने ही मुड जाएगा
सच्चा आराद्य जिधर है ।

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