Thursday, August 27, 2009

कल्पना

मेरी ये कविता लड़कपन और जवानी के बीच की कल्पना है... जो अक्सर ख्वाबो को सच मान कर जिंदगी का आनंद एक पंछी की भाती जीने लगता है ।
कल्पना

नींद पलकों में उलझ कर खो गयी...
चांदनी मेरे पास आ कर सो गयी ।
दूर से आती हुई ठंढी हवा ...
कल्पना के बीज मन में बो गयी ।
आग भड़काने लगी तन्हाएया ...
धडकनों में रौशनी सी हो गयी ।
सुबह ने किस्सा सुनाया रात का ...
किस कदर मायूस हो कर वो गयी ।
सवेरे का सूरज छलावा था केवल ...
पलक झपकते ही शाम हो गयी ।
धडकनों पर हस्ताक्षर थे तुम्हारे ...
ये उम्र भी तुम्हारे नाम हो गयी ।

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