Saturday, December 5, 2009

आंसू

कहते है आंसू बरबस ही टपक पड़ते है ... मगर भाई हर आंसू एक संदेश देता है ... आंसू एक बेनामी ख़त है ... जिसे मिल जाए और समझ जाए वही उसका पाठक होता है ... आँखें इसकी गवाही नहीं देती की ...आंसुओं का रंग कैसा था ... आंसू एक ग्रन्थ ... है जो पढ़ ले वही विद्वान है ।
........................................................आंसू ...................................................
मैंने देखा है अश्कों को सिसकते हुए
एक चाह में ...
किसी के इंतजार में ।
जो कराता है उसकी पहचान
लेकिन सिमटे हुए
एक रंग में ...
इस आस में की
हर मुस्कान की भी एक उम्र होती है ।

मूर्ति

..............................................मूर्ति.........................................
कई बार मैंने ज़िन्दगी को करीब से देखने की कोशिश की, लेकिन हर बार असफलता ही हाथ लगी ... ज़िन्दगी ने हर बार मुझसे कुछ माँगा... लेकिन मै तो बस सांसों का पंथी हूँ ... साथ आयु के चलता हूँ ... मेरे साथ सभी चलते है ... बादल भी...तूफ़ान भी ... बस मै एक मूर्ति हूँ...देखता हूँ मगर कुछ बोल नहीं सकता ।

मूर्ति
मेरे मन की मूर्ति सामने खड़ी
मांगती है दान
इधर मुझे झकझोर रहा है
भावों का तूफ़ान ...
उषा का घूँघट दूँ
या ...
संध्या का असित वितान ...
मेरे मन की मूर्ति सामने खड़ी मांगती है ...दान

Friday, September 11, 2009

पैसा

.................................पैसा .........................................
भाई अपने उम्र के अब तक अनुभवों के आधार पर ये कविता आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ । पैसा कब और कहाँ हावी हो जाए ये कहना बहुत मुश्किल है । कभी सुर्खियों में रहा ये वाक्य .....खुदा की कसम पैसा खुदा तो नहीं मगर खुदा से कम भी नहीं ..... धीरे धीरे ही सही आमो - खास के जीवन के एक महत्वापूर्ण जगह को छीन चुका है । लेकिन क्या आदमी के जीवन की सीमा यहीं आकर ख़त्म हो जाती है । यह एक इन्सान के लिए सोचने वाली बात नहीं हो गयी है ।
..........................................पैसा ...........................................
पैसा है जैसा दुनिया है वैसी ...
पैसे की तो बात निराली ।
पैसा तो है बिल्कुल गोल ...
जो पता हो जाता गोल ।
बच्चे पैसा पैसा कह रोते है ...
बड़े पैसा पा खुश रहते है ।
अपने पराये हो जाते है ...
जब ये पैसा जाता है ।
फिर पैसे के आते ही ...
सब मिल कर रहते है ।
प्रेम का कारण भी है पैसा ...
द्वेष का कारण भी है पैसा ।
दुनिया पैसे पर चलती है ...
या पैसा दुनिया पर चलती है ...
ये कोई न जाना है फिर भी रोते पैसा - पैसा ।
पैसा है जैसा दुनिया है वैसी ...
पैसे की तो बात निराली ।

Thursday, August 27, 2009

कल्पना

मेरी ये कविता लड़कपन और जवानी के बीच की कल्पना है... जो अक्सर ख्वाबो को सच मान कर जिंदगी का आनंद एक पंछी की भाती जीने लगता है ।
कल्पना

नींद पलकों में उलझ कर खो गयी...
चांदनी मेरे पास आ कर सो गयी ।
दूर से आती हुई ठंढी हवा ...
कल्पना के बीज मन में बो गयी ।
आग भड़काने लगी तन्हाएया ...
धडकनों में रौशनी सी हो गयी ।
सुबह ने किस्सा सुनाया रात का ...
किस कदर मायूस हो कर वो गयी ।
सवेरे का सूरज छलावा था केवल ...
पलक झपकते ही शाम हो गयी ।
धडकनों पर हस्ताक्षर थे तुम्हारे ...
ये उम्र भी तुम्हारे नाम हो गयी ।

Monday, August 24, 2009

पथ

कभी कभी आदमी ये सोचने पर मजबूर हो जाता है की ... जितने भी लोग साथ जुड़े उन सबके साथ उसका लगाव कैसा था । क्या वह उन लोगो को उतना प्यार दे पाया जिसके वो हकदार थे । अगर वह ऐसा नहीं कर पाया तो इसका कारण क्या था । फ़िर वह सोचता है प्यार देना या प्यार पाना किस्मत में होता है ... किसी के मांगने या ख़ुद के चाहने से कुछ नहीं होता है । प्यार एक पथ है जो पथिक को अपनी तरफ़ एक चुम्बक की तरह खीचने लगता है ... और आदमी बिना सोचे समझे एक अंधे की भाती चलते जाता है ।

पथ
जितने प्रेमी उतने आंसू
हर आंसू की व्यथा अलग है
जितने आंसू उतने अक्षर
हर अक्षर की भाषा अलग है
जितने अक्षर उतने प्रतिक
यह न पुछो आराद्य किधर है
पथ अपने ही मुड जाएगा
सच्चा आराद्य जिधर है ।

Monday, July 27, 2009

विवशता

आदमी अपने जीवन में बहुत सारे सफल काम करता है ... मगर वह सफलता के पीछे जब मुड़ कर देखता है तो कुछ न कुछ छुटा -छुटा हुआ पाता है ... पूर्णता तो भगवान में है लेकिन वो बन्धनों से मुक्त ... सर्वत्र विद्यमान
और मोह माया से मुक्त है ... क्या ये आदमी में संभव है ... अगर हाँ तो मै ग़लत हूँ ।
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कुछ मिल न सका मेरे मन को ...
कुछ दे न सका ख़ुद के तन को ।
तृप्ति -अतृप्ति किसी ने भी ...
आकर्षित न किया मेरे मन को ।
ये कैसी अपूर्णता दी तुमने ...
धरती की आखों में आखे डाल कर
पूछता हूँ ...
और सोचने पर मजबूर हो जाता हूँ ...
ये कैसी विवशता दी तुमने ...
पूर्ण हो कर भी अपूर्णता मह्शूस करता हूँ ।

अभिलाषा

भाई बड़े बुजुर्ग क्या खूब कहते रहे ... पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब ... खेलोगे कूदोगे तो होगे बर्बाद ... इस अदभुत वाणी को कुछ ही गिने -चुने युवाओ ने ग़लत साबित किया है ... मगर ज्यादातर ने सच ही साबित किया है । जवानी की मदहोशी कहे या बेहोशी ... बेफिक्र रहना कोई युवाओ से सीखे । उन्ही खास युवाओ के प्रति समर्पित है मेरे कुछ शब्द । जो कही न कही ये मेरी जिन्दगी पर भी कटाक्ष करती है ।
.....................................अभिलाषा......................
हर पल बिताया था मैंने ...
चंचल भोग विलाश में ।
हर पल चल निकला करता था...
सपनो की बारात में ।
कुछ मिल न सका मेरे मन को ...
कुछ दे न सका ख़ुद के तन को ...
और खो दिया ख़ुद को ...
सुख की अभिलाषा में ।
मेरे स्वप्न सिमट कर रह जाते है ...
दुःख के आलिंगन में ।
हाय हर पल बिताया मैंने
चंचल भोग विलाशों में ।