आदमी अपने जीवन में बहुत सारे सफल काम करता है ... मगर वह सफलता के पीछे जब मुड़ कर देखता है तो कुछ न कुछ छुटा -छुटा हुआ पाता है ... पूर्णता तो भगवान में है लेकिन वो बन्धनों से मुक्त ... सर्वत्र विद्यमान
और मोह माया से मुक्त है ... क्या ये आदमी में संभव है ... अगर हाँ तो मै ग़लत हूँ ।
........................................विवशता ..........................................
कुछ मिल न सका मेरे मन को ...
कुछ दे न सका ख़ुद के तन को ।
तृप्ति -अतृप्ति किसी ने भी ...
आकर्षित न किया मेरे मन को ।
ये कैसी अपूर्णता दी तुमने ...
धरती की आखों में आखे डाल कर
पूछता हूँ ...
और सोचने पर मजबूर हो जाता हूँ ...
ये कैसी विवशता दी तुमने ...
पूर्ण हो कर भी अपूर्णता मह्शूस करता हूँ ।
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Sach hai.
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